Thursday, 30 November 2017

Hunger Index: Need to revive Manufacturing



India has slipped at 100th place in the Global Hunger Index, composed for 119 countries of the world. It is indeed very painful that on the one head India is the second fastest growing economy of the world and had enjoyed the crown of being the fastest growing economy of the world since 2014 to 2016. But it is all the more worrisome that India is now lagging behind even Nepal, Myanmar, Sri Lanka and Bangladesh. Moreover, a fall from the 55th rank in 2014 to the 100th is quite painfully astonishing. A very poor state of Human Development on various counts, including the child-wasting, stunted growth and very high child mortality rate of 5% reflect abject poverty among vast masses. On account of severe malnourishment, 21% of the Indian children suffer from wasting, that have a weight lower than normal for height. Only three other countries in the world have the worst statistics on this count than India. Nearly, 40% of Indian children are also reported to be stunted (have low height for their age) due to hunger – only better than the Pakistan in our neighborhood.

One of the major reasons for this poor state of human development in the country may be job losses, out of growing industrial sickness, casualisation of workforce, lack of regular availability of job for such casual workers as well throughout the year and lack of social security for almost 80% of the casual workforce. Quality employment for masses, can be generated only by reviving the manufacturing sector, reeling under import surge and an unfriendly manufacturing eco-system. High interest rates, higher power-tariffs, inordinate delays in all the requisite clearances required to add or setup fresh manufacturing facilities are some of the major reasons for declining trend in the manufacturing activities in the country.

India has only 2.1% contribution in the world manufacturing vis-à-vis 22% of the China, 17.6% of the United States and 7% of the Japan. Japan has only 1.6% share in the world population wherever 7% share in world manufacturing, while India has 17.8% share in the world population, but only 2.1% share in world manufacturing. China too had mere 2.4% contribution in the world manufacturing in 1991. Now, by virtue of its robust manufacturing base, China has the highest ratio of middle-income group in population in world. Deriving a cue from it, India too has to improve its manufacturing eco-system to promote domestic investment in setting up new capacities and upscale the existing ones. A bold initiative is needed to be undertaken, to launch and groom ‘Made By India’ products and brands with full downstream value chain of equipments and components, including the original equipment manufacturing. Initiatives have to be taken to develop industry consortiums for developing precompetitive technologies for domestic industry and various industry clusters. The interest rates and power-tariffs too have to be brought down to make these at par with the major manufacturing economies of the world for providing a facilitating and enabling environment to the domestically owned enterprises. Infrastructure development activities too need to be developed through domestically owned ventures, to support value addition in the downstream value chain domestically.

So, now instead of focusing merely on poverty alleviation programmes, these need to be supported by endeavors to generate quality employment, with reasonable social security through investment promotion in quality employment generating activities in industry and commerce. An investor friendly eco-system for enhancing domestic investment in manufacturing ‘Made By India’ products and brands can only take the country of the present crisis of hunger and poverty. It would support original equipment manufacturing and generate a multiplier impact on employment generation, income, demand, investment and further income generation in a cyclical phase in the downstream value chain.       







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हमारी कृषि सामर्थ्य:
     विश्व की सर्वाधिक कृषि योग्य भूमि, सर्वाधिक पशुधन, और सर्वाधिक विविधतापूर्ण 127 प्रकार के कृषि जलवायु क्षेत्र भारत के पास हैं। इसे ध्यान में रखते हुये ही प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि के लिये सर्वोच्य 15 प्रतिशत व कृषि व सिंचाई पर संयुक्त रूप से 31 प्रतिशत निवेश (पदअमेजउमदज) का प्रावधान रखा गया था। लेकिन, उसके बाद कृषि में सार्वजनिक निवेश निरन्तर घटता ही गया है। प्रथम पंचवर्षीय योजना काल के बाद से ही कृषि में सार्वजनिक निवेश की उपेक्षा से आज देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान 50 प्रतिशत से घटकर 14 प्रतिशत रह गया है और हमारी प्रति एकड़ उत्पादकता अन्तर्राष्ट्रीय औसत की 1/3 से भी न्यून है। देश के पास विश्व की सर्वाधिक 18.9 करोड़ हेक्टर कृषि योग्य भूमि एवं विश्व का सर्वाधिक (6.67 करोड़ हेक्टर) सिंचित क्षेत्रफल है। देश को प्रतिवर्ष हिमपात व वर्षा से कुल 40 करोड़ हेक्टर मीटर जल प्राप्त होता है। उसका अनुकूलतम उपयोग करके हमें देश की सम्पूर्ण कृषि योग्य भूमि को सिंचित बना सकते हैं। ऐसे में हम अपने कृषि उत्पादन को चतुर्गुणित से कहीं अधिक कर विश्व की दो तिहाई (450 करोड़) जनसंख्या की खाद्य आपूर्ति करने मे सक्षम बन, विश्व की क्रमांक एक की खाद्य शक्ति ;थ्ववक च्वूमतद्ध बन सकते हैं। किसान की आय दो गुनी हो जाने पर वह भी उस आय से बाजार से विविध उत्पादकीय उद्योगों का माल प्रचुरता मंे खरीदेगा- यथा उनमें बर्तन, पंखा, फ्रिज, स्कूटर, टी.वी., वस्त्रादि सम्मिलित है। उससे देश में औद्योगिक, उत्पादन, रोजगार, आय, सरकार का कर राजस्व आदि सभी बढ़ेगें और विकास का मार्ग प्रशस्त होगा।
कृषि: समग्र विकास की आधार
        हमारे देश से प्रतिवर्ष जो 20 करोड़ हैक्टेयर मीटर जल बह कर समुद्र में विलीन हो जाता है, उसका यथोचित्त उपयोग करके, हम अपने सिंचित क्षेत्र को 6.67 करोड़ हैक्टेयर के वर्तमान स्तर से, 16 करोड़ हैक्टेयर तक बढ़ा सकते हैं। ऐसा करके देश विश्व की क्रमांक एक की खाद्य शक्ति बन कर विश्व की दो तिहाई जनसंख्या की खाद्य आपूत्र्ति कर सकता है। देश में आज असिंचित भूमि में खाद्यान्न उत्पादकता 750 किग्रा. प्रति हैक्टेयर व सिंचित क्षेत्र में 3 टन प्रति हेक्टर है। वहीं जैविक खाद-प्रधान उन्नत कृषि तकनीक वाले देश नीदरलैण्डस् में खाद्यान्न उत्पादकता 9 टन प्रति हैक्टेयर है। देश में उपलब्ध जल राशि से अपनी सिंचाई क्षमता बढ़ा कर कुल 16 करोड़ हैक्टेयर कर लेने पर, देश का कृषि उत्पादन सवा दो गुना तक सहजता से किया जा सकता है एवं नीदरलैण्ड्स की तरह कृषि जैविक खाद प्रधान व उसमें उन्नत कृषि पद्धतियों का समावेश कर, देश की कृषि उपज को 6 गुना किया जा सकता है। ऐसा करके हम ‘विश्व का भरण-पोषण करने में समर्थ देश’ के रूप में अपने नाम ‘भारत’ को पुनः सार्थक कर सकते हैं। ‘भारत वर्ष’ नाम की प्राचीन निरूक्ति यही कहती है, यथा -
‘‘भरणात् प्रजानाच्चैव मनुर्भरत उच्यते। निरूक्त यवचनैश्चैव वर्ष तद् भारत स्मृतम्।। (मत्स्य पुराण)’’
‘‘विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई। (राम चरित मानस)’’
‘‘भरणात् प्रजानां सर्वेमहीयां शुश्रुषणं तदैव भारत अस उच्यैते।। (निरूक्त)’’
        अस्तु! इस प्रकार हम अपनी कृषि-आय, अर्थात् कृषि क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद में इस वृद्धि से देश की सकल वार्षिक आर्थिक वृद्धि दर में द्रुत वृद्धि और बढ़े हुए कृषि निर्यातों से सम्पूर्ण विदेश व्यापार के घाटे को समाप्त भी कर सकते हैं। कृषि पर निर्भर इस देश की आधी से अधिक जनसंख्या की आय बढ़ने पर बढ़ी हुई आय से होने वाली अतिरिक्त खरीददारी व मांग-वृद्धि से, देश में औद्योगिक उत्पादन वृद्धि दर भी 2 से 3 गुना तक सहजता से हो जायेगी।

सार्वजनिक निवेश के अभाव के न्यून उत्पादकता:
        कृषि में जहाँ प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनाओं मंे कृषि में कुल निवेश में सार्वजनिक निवेश का अनुपात क्रमशः 50 प्रतिशत, 50 प्रतिशत व 62 प्रतिशत रहा है, वह अब घट कर मात्र 17.6 प्रतिशत रह गया है। कृषि में सार्वजनिक निवेश जहाँ 1976-80 के बीच हमारे ळक्च् का 3.4 प्रतिशत रहा है, वह घट कर अब 1.8 रह गया है। कृषि अनुसंधान पर हमारा निवेश हमारे कृषि क्षेत्र के ळक्च् का मात्र 0.7 प्रतिशत है इसलिये कृषि उत्पादकता में हम विश्व के उच्च कृषि उत्पादकता वाले देशों के 1/6 भी से पीछे हैं (देखें तालिका - 1)।
टेबल 1: अन्य देशों से उत्पादकता में पिछड़ापन



Average yield, India (2010)
World's most productive farms (2010)
Rank
Produce
(tonnes per hectare)
(tonnes per hectare)
Country
1
Rice
3.3
10.8
2
Cow milk
1.21
10.31
3
Wheat
2.8
8.9
4
Mangoes
6.3
40.6
5
Sugar cane
66
125
6
Bananas
37.8
59.3
7
Cotton
1.6
4.6
8
Fresh Vegetables
13.4
76.8
9
Potatoes
19.9
44.3
10
Tomatoes
19.3
524.9
11
Soyabean
1.1
3.7
12
Onions
16.6
67.3
13
Chick peas
0.9
2.8
14
Okra
7.6
23.9
15
Beans
1.1
5.5
        Source : Food and Agriculture Organisation : FAOSTAT 2013
            1-  Vu nw/k izfr xk;
इसके अतिरिक्त उत्पादकता में विविध राज्यों में भारी अन्तर है (तालिका 2 व 3)। उचित प्रयत्नों से इसे ठीक किया जा सकता है। हमारे कुल कृषि योग्य क्षेत्रफल का लगभग 2/3 क्षेत्रफल असिंचित है और सिंचित व असिंचित क्षेत्र की उत्पादकता में भी 4ः1 से भी अधिक का अन्तर है हम अपने उपलब्ध जल संसाधनों से सिंचित क्षेत्र को दो गुना अत्यन्त सहजता से कर सकते है। हम नदियों में बह कर जाने वाले 20 करोड़ हैक्टर मीटर पानी में से केवल 2.5 करोड़ हैक्टर मीटर पानी का ही उपयोग कर पा रहे है। शेष 17.5 करोड़ हैक्टर मीटर पानी बिना उपयोग में लाये नदियों में बहकर चला जा रहा है। देश के जलातिरेक वाले क्षेत्रों से जलाभाव वाले क्षेत्रों में, पर्यावरण को प्रतिकुल रूप से प्रभावित किये बिना, यदि जल का अन्तरण कर लिया जाये तो देश का सिंचित क्षेत्रफल 16 करोड़ हैक्टर किया जा सकता है।
टेबल 2: देश में उत्पादकता अन्तराल

Irrigated
Rainfed
State
Paddy
Wheat
Mustard
Maize
Bajra
Jowar
Groudnut
Andhra Pradesh
123
23


191
231
83
Assam
175
46
144




Bihar
162
74
174
195


25
Gujrat
60
43
124
99
191
541
1
Harayan
55
25
1
3
85


HP
49
163
420
11



Karnataka
132
28


258
292
49
Kerala
166






MP
135
73
89
105
165
231
55
Maharashtra
140
102





Orissa
115
66
63
153


60
Punjab
87
40
25
6



Rajasthan
27
82
130
114
309

106
Tamil nadu
61



163
479
62
Uttar Pradesh
101
93
164
106
92

106
West Bengal
90
19
131
11




                 Source : Agricultural statistics at a Glance, Directorate of Economics and Statistics.

टेबल 3: उत्पादकता में राज्यवार भारी अन्तर

Crop[63] 
Average farm yield in Bihar
Average farm yield in Karnataka
Average farm yield in Punjab

kilogram per hectare
kilogram per hectare
kilogram per hectare
Wheat
2020
unknown
3880
Rice
1370
2380
3130
Pulses
610
470
820
Oil seeds
620
680
1200
Sugarcane
45510
79560
65300
                         Source : Mahadevan, Renuka, Asia Pacific Development Journal (Dec. 2003) P. 57-72
इसलिये ठीक से प्रयास करें तो हम देश के उपलब्ध जल संसाधनों से सम्पूर्ण कृषि योग्य क्षेत्र के 90 प्रतिशत को सिंचित किया जा सकता है (देखें तालिका-4)। अतएव देश को सिंचाई पर दु्रतगति से निवेश प्रावधान बढ़ाना होगा। 

TABLE 4: LAND AND WATER RESOURCES OF INDIA1
PARTICULARS
QUANTITY
Geographical Area of India
Flood Prone Area
Ultimate Irrigation Potential of the Country
Total Cultivable Land Area
Net Irrigated Area
Natural Runoff (Surface Water and Ground Water)
Estimated Utilisable Surface Water Potential
Groundwater Resource
Available Groundwater resource for Irrigation
Net Utilisable Groundwater resource for irrigation
329 million ha.
40 million ha.
160 million ha.
184 million ha.
6.67 million ha.
1869 Cubic km.
690 Cubic km.
432 Cubic km.
361 Cubic km.
325 Cubic km.
Source: National Institute of Hydrology                                                Website: www.nih.ernet.in;
1Water Resource India, National Institute of Hydrology.
अति रसायन प्रधानता के दुष्प्रभाव
पोषक तत्वों का विषम अनुपात: रासायनिक उर्वरकों के उपयोग में असन्तुलन भी आज अत्यंत चिन्ताजनक है। वैज्ञानिकों के मतानुसार नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस व पोटाश का अनुपात 4ः2ः1 होना चाहिये। लेकिन, हमारे यहाँ नाइट्रोजन, फाॅस्फोरस व पोटाश (एन.पी.के.) के विषम अनुपात के कारण बड़ी मात्रा में भूमि ऊसर व अन्त-उर्वरा रहित होती चली गयी है। हाल ही में आये संसदीय समिति के एक प्रतिवेदन में कहा गया है कि पंजाब में एन.पी.के. के अनुपात की विषमता 39ः9ः1 पर पहुँच गयी है एवं इसका राष्ट्रीय औसत भी आज 7ः3ः1 पर चला गया है। इसलिये प्रति किलो एन.पी.के. से जहाँ 1970 में 50 किलो अनाज की उपज मिलती थी वह घट कर 15-20 किलो तक ही रह गयी है। पूरे देश में ही पोटाश, यशद (जिंक) की कमी व अन्य सूक्ष्म पोषकों की कमी एवं भूमि की उर्वरता बढ़ाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं के अभाव में भूमि की उर्वरता में भारी कमी आयी है। उसे बढ़ाने के लिये किसान द्वारा केवल यूरिया के अधिकतम उपयोग से भूमि और बंजर होती जा रही है।
जैव विविधता की दृष्टि से कई ग्राउण्ड नेस्टिंग बडर््स अर्थात भूमि पर घौंसले बनाने वाली चिड़ियाएँ लगभग दो फीट ऊंची झाड़ियों व घास में ही रहती हैं। तितलियों व कीट-पतंगों के लिये भी ऐसी घास व झाड़ियाँ अत्यन्त उपयोगी होती है। इन वनस्पतियों में से अनेक पेड़-पौधों की जड़ें, उनसे निकलने वाला ह्यूमस व कई ब्राॅयोफाइट्स भी मिट्टी की जल धारण क्षमता बढा़ते हैं व स्वयं भी बड़ी मात्रा में वर्षा जल को धारित कर उसे धीरे-धीरे छोड़ते हुये जल स्रोतों में वर्ष भर जलापूर्ति बनाये रखने में सहायक सिद्ध होते हैंै। इस प्रकार आज अपने समग्र पारिस्थितिकीय सन्तुलन के संरक्षण हेतु प्रत्येक क्षेत्र-विशेष की पारम्परिक जैव विविधता का रक्षण व संवर्द्धन पर्यावरण प्रबन्ध की मुख्य पूर्वावश्यकता है।
कृषि मित्र कीटों का विनाश: इसी प्रकार आज देश में हम जिन नियोनिकोटिनोइड श्रेणी के कीटनाशकों का द्रुतगति से उपयोग बढ़ा रहे हैं, उन्हें यूरोप ने तो वर्ष 2013 से ही अस्थायी रूप से प्रतिबंधित कर दिया था। उनसे वहाँ मधुमक्खियाँ द्रुतगति से विलोपित हो रहीं थीं, जिससे उनकी विविध फसलों की उत्पादकता तेजी से कम होने लगी थी। अब 2017 से वे इन्हें पूरी तरह से प्रतिबन्धित कर रहे हैं। वस्तुतः, इन नियोनिकोटिनोइड श्रेणी के कीटनाशकों के छिड़काव के बाद उन फसलों के पुष्पों से पराग ग्रहण करने वाली मधुमक्खियों की स्मृति नष्ट हो जाती थी और वे अपने छत्तों तक नहीं पहुँच पाती थीं। हमारे देश में नियोनिकोटिनोइड श्रेणी के इन घातक कीटनाशकों का व्यापक उपयोग हो रहा है और कई कृषि विश्वविद्यालयों में इनकी व ऐसे ही कई घातक कृषि रसायनों यथा एण्डोक्राइन डिस्टर्बिंग कीटनाशकों आदि की ट्राॅयल्स भी व्यापक स्तर पर लगाई जा रही हैं। कृषि रसायनों के ही अति-प्रयोग के कारण, भूमि में पाये जाने वाले केंचुऐ, फसलों के मित्र कीटों व कई सूक्ष्मजीवियों के नष्ट होते चले जाने से भी मृदा, अर्थात साॅइल की उर्वरा शक्ति व जलग्रहण क्षमता भारी मात्रा में प्रभावित हुई है। केंचुऐ प्रति हेक्टर जमीन में वर्ष भर में 6 लाख से अधिक छिद्र कर दिया करते थे। इन छिद्रों से ही पानी रिस कर भू - गर्भ तक पहुँचता था, जिससे सहस्त्राब्दियों से, भू-गर्भ का जल स्तर अत्यन्त ऊँचा बना रहा है। आज कैंचुओं व तत्सम कीटों व अनेक सूक्ष्म जीवियों के विलोपन से देश के आधे से अधिक जिले डार्कजोन में बदल रहे हैं। हमें आज अफ्रीकी कैंचुओं को आयात करके वर्मी कम्पोस्ट बनाने पर विवश होना पड़ रहा है।
आज कई पैरासाइटाॅइड कहे जाने वाले, फसलों के परजीवी-मित्र कीटों के विलोपन से भी हमें उŸारोŸार, घातक कीटनाशी रसायनों का प्रयोग करना पड़ रहा है। इन कीटों का जीवन चक्र फसलों को नष्ट करने वाले कीटों व कृमियों पर ही पूरा होता है। इसलिए वे अनादि काल से विविध फसलों की रक्षा करते आये हैं। किसी भी फसल या फलों के बगीचों पर उसे नुकसान पहुँचाने वाले कीटों का प्रकोप होने पर उस कीट प्रकोप-ग्रस्त फसल या फलों के वृक्षों में प्रकृति-जन्य ऐसे सुगन्धित जैव रसायनों का संश्लेषण होता रहा है जिनकी सुंगन्ध से वे पैरासाइॅटाॅइड श्रेणी के परजीवी कीट आकृष्ट होकर आते थे व उस फसल या फल के नाशक कीटों को समाप्त कर देते थे। परिणामस्वरूप, वह फसल या फलों के बगीचे पैरासाइटाॅइड श्रेणी के मित्र कीटों के सहयोग से बच जाते थे। कई कीट अपने अण्डे ही इन फसल नाशक कीटों पर देते थे, जिनसे लार्वा निकल कर उन फसलनाशी कीटों को समाप्त कर देते थे। ऐसी ही कई चींटियाँ व चीण्टे भी भूमि से बाहर आकर इन फसलों की रक्षा करते आये हैं। ये सभी आज अति रसायन प्रधानता से समाप्त हो रहे हैं।
पर्यावरण असंतुलन: इस अवसर पर यह भी स्मरणीय है कि कृषि विकास के हमारे सभी प्रयास यशस्वी तब ही हो सकेंगे, जब हम अपने पारस्थितिकी-तंत्र अर्थात् इकालाॅजी को भी सुरक्षित रख पायेंगे। हमारी फसलों की 15-18 प्रतिशत उत्पादकता में कीट परागणकत्र्ताओं अर्थात् इन्सेक्ट पाॅलिनेटर्स का विशेष योगदान है। हमारे परिवेश व पारिस्थितिकी-तंत्र में ऐसी परागणकत्र्ता मधुमक्खियों, तितलियों, भृंग, भ्रमर, मोथ, बीटल आदि कीट-पतंगों की संख्या तेजी से घट रही है। विश्व के कुल तीन लाख से अधिक प्रकार के एंजियोस्पर्म श्रेणी के पुष्पित होने वाले पेड़-पौधों की प्रजातियाँ और इन पर सहजीवी डेढ़ लाख से अधिक प्रजातियों के कीट-पतंगे परस्पर अवलम्बित हैं। कई बागवानी फसलों की आधी तक उपज में इन कीट परागणकत्र्ताओं का अहम योगदान है। बादाम जैसा पेड़ तो कीट परागित पादप ही है। लेकिन, देश में घटती हरीतिमा, तेजी से विलोपित हो रही जैव विविधता, अत्यन्त सीमित प्रजातियों का पौधारोपण व अनेक आधुनिक कीटनाशी रसायनों से पारिस्थितिकी तंत्र का यह सुकोमल सन्तुलन विनष्ट होता जा रहा है। कई मधुमक्खियाँ व कीट-पतंगे आदि आधा किमी. की परिधि से आगे नहीं जा सकते हैं। कुछ पक्षी भी 2-3 किमी. की परिधि से आगे नहीं जा पाते हैं। इसलिये, ऐसी प्रत्येक आधा किमी. से 2 किमी. की परिधि में कीट-पतंगों एवं पक्षियों को आवास व आहार के लिए हर मौसम में पुष्प व फल देने वाली सभी पारम्परिक पादप प्रजातियाँ का होना व उनका सतत् संरक्षण परम-आवश्यक है। एक ही या सीमित प्रजाति के पेड़-पौधे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण नहीं कर पायेंगे। उदाहरणतया - केवल नीम का ही पौधारोपण करने पर नीम में पुष्प मात्र 15-20 दिन रहते हैं व उनमें निम्बोली भी 15-20 दिन तक ही रहती है। उसके बाद कई किमी. तक केवल नीम की बहुलता की दशा में, पराग व फल की खोज में कीट-पतंगे व फल-भक्षी पक्षी भूख से ही मर जाते हैं।
पारम्परिक प्रजातियों व उनको दुर्लभ जैव द्रव्य का विलोपन: भारत विश्व का सर्वाधिक जैव विविधता वाला देश रहा है। लेकिन 3-4 दशकों में हमने अपने आधे से अधिक जैव द्रव्य व पारम्परिक बीजों को कृषि की मुख्य धारा से विलोपित हो जाने दिया है। भारत पाये जाने वाले तृण, अन्न, फल व सब्जियों की अनेक प्रजातियाँ व उनका जैव द्रव्य विलोपित होता जा रहा है। अनेक वन्य वानस्पतिक प्रजातियों के विलक्षण अनुवांशिकीय गुण भी जैव विविधता के महत्व को कई गुना बढ़ा देते हैं। अफ्रीका में पाये जाने वाले वन चँवले या काऊ-पी की एक प्रजाति में कीटाणुरोधी या रोग निरोधक गुण होने से उस पर कोई कीड़ा, फफूंद या अन्य के रोग नहीं लगते रहे हैं। काऊ-पी की इस प्रजाति में रोग प्रतिरोधक गुण देने वाले वंशाणु अर्थात जीन को चिह्नित कर, उसे मक्का व सोयाबीन में प्रत्यारोपण कर मक्का व सोयाबीन के रोग प्रतिरोधक बीज तैयार किये गये हैं। भारत में ऐसी वन्य प्रजातियाँ असंख्य हैं। यथा, में एक अमेरिकी खरबूजे पर लगे फफूंद पर कोई भी फफूंदरोधी रसायन प्रभावी नहीं होने पर उसमें एक भारतीय प्रजाति की जंगली खीरा ककड़ी में पाये ऐसे वंशाणु का प्रत्यारोपण कर उस खरबूजे की प्रजाति को बचाया जा सका था अर्थात उस भारतीय खीरा ककड़ी का वह फफूंदरोधी वंशाणु एक अनमोल जैव द्रव्य कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रकृति में फैली हमारी जैव विविधता एक अनमोल उपहार है, जिसके संरक्षण के प्रयास हमें हर कीमत पर करने होंगे। राजस्थान में पाया जाने वाला ‘चीणा’ भी विलक्षण गुणवाला ऐसा अनाज है जिस पर किसी कीड़े, घुन, इल्ली आदि का प्रकोप नहीं होता है। चीणा में कीट या रोग प्रतिरोधकता का यह गुण उसके जैव द्रव्य को अरबों डाॅलर तुल्य मूल्यवान बना देता है। इसलिये हमें अपनी पारम्परिक प्रजातियों, उनके बीजों व जैव द्रव्य का यत्न पूर्वक संरक्षण करना चाहिये।
अतएव, कृषि जो आज आधी से अधिक जनसंख्या का जीवन आधार है, सम्पूर्ण देश के लिये खाद्य सुरक्षा का सुदृढ़ स्तम्भ है और समग्र अर्थव्यवस्था को द्रुत गति से आगे बढ़ाने की सामथ्र्य रखती है। उसके विकास की प्रभावी रीतिनीति बनानी आवश्यक है। कृषि के समन्वित विकास के मार्ग में आने वाली प्रमुख बाधाओं का विवेचन इस श्रृंखला के आगामी लेख में किया जायेगा।

Plantation and Ecological Balance

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